रविवार, 19 जून 2011

अधोपतन एक नोबल प्रोफ़ेशन का

शिक्षा के साथ साथ आज स्वास्थ्य-चिकित्सा के क्षेत्र मे भी व्यवसायिकता अपने संपूर्ण घृणित जलाल के साथ हावी हो गई है अर्थात गंदे धंधो की सभी गंदी बुराईया अपने गंदे रूप मे स्वास्थ्य-चिकित्सा के क्षेत्र मे भी घुसपैठ कर चुकी है हां यह भी सच है कि चिकित्सा विज्ञान ने बेहद तकनीकि विकास किया है नयी दवाये, नई विधिया ,नई मशीने और जगह जगह चमचमाते नये नये अस्पताल भी खुल गये है परन्तु सब कुछ आम और यहॉ तक की मध्यमवर्ग के लिए भी बहुत ही महंगा है और उसकी पहुंच से बाहर है आज अगर किसी व्यक्ति को कोई बडी बिमारी पकड लेती है तो उसका घर खाली हो जाता है, कर्ज भी करना पडता है , मकान,जमीन, जायजाद बेचने को मजबूर भी होना पडता है,और उसके पास कोई चारा ही नही रहता है इसीलिए कहते है कि भगवान दुश्मन को भी अस्पताल की सीढ़िया चढाये। हमारे तमाम विकास के बावजूद हमने आम और मध्यमवर्ग जो८० प्रतिशत भी अधिक है के बारे में कभी कुछ भी विचार करने का प्रयास ही नही किया , फ़िक्र ही नही की है ।

इस परिस्थिति के लिए बहुत हद तक हमारे ड़ाक्टर जिम्मेदार है ,क्योकि आज डाक्टरो का व्यवहार बेहद अमानवीय रूप से व्यवसायिक हो गया है वे खुलकर बेशर्मी के साथ कहते है ,स्वीकार करते है, कि पढाई मे करोड-करोड रूपया खर्च करने के बाद यह डिग्री मिली है इतना रूपया लगाया है तो ब्याज सहित ,कई गुना वसूल तो करेगे ही वैसे यह अलग बात है कि इन डाक्टरो की योग्यता के यह हाल है कि इतनी मंहगी डिग्री लेने के बावजूद इनकी पेशेवर योग्यता और निपुणता की औचक जांच की जाये तो अनैक डाक्टर अपनी डिग्री की योग्यता पर भी खरे नही उतरते है। अपनी विशेषज्ञता के बावजूद कई डाक्टर जांच परीक्षण और चिकित्सा के लिए दवा लिखते हुए चिकित्सा करते हुए,आपरेशन करते हुए, सिर्फ भयंकर गलतियां करते है बल्कि जानते बूझते हुए बेहद चौकाने वाली लापरवाही करते हुए पाये जाते है अब इनके इस कदाचार ,अनाचार ,भ्रष्टाचार लापरवाही को केवल कोई ड़ाक्टर ही तो उजागर कर सकता है परन्तु एक ड़ाक्टर ,ड़ाक्टर की पोल कम ही खोलता है क्योकि इनमे भी एक मौसेरा भाईचारा तो रहता ही है |

एक लतिफ़ा है 'जो है तो अतिश्योक्तिपूर्ण लतिफ़ा परन्तु ड़ॉक्टरो की भूल, लापरवाही, गलती और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार की ओर स्पष्ट सांकेतिक ईशारा बहुत अच्छे से अवश्य ही करता है

लतिफ़ा है-

पप्पू की टांग नीली हो गयी। ड़ॉक्टर के पास जाता है

डॉक्टर (पप्पू से)- जहर है तुम्हारी टांग काटनी पड़ेगी।

टांग काटकर नकली लगा दी गयी।

2 दिन बाद नकली टांग भी नीली पड़ गयी।

डॉक्टर - अब तुम्हारी बीमारी समझ मे आयी , तुम्हारी जींस रंग छोड़ती है।

दुखी, परेशान, कराहता मरीज डाक्टर के पास जाता है उसे भगवान समझकर परन्तु डाक्टर के लिए वह मा़त्र एक ग्राहक, शिकार , बनकर रह जाता है ।और उसे बेदर्दी से लूटा नोचा जाता है इस सारे मामले को और डाक्टरो को और अधिक पथभ्रष्ट करने के लिए प्रतिशत %40 से प्रतिशत %400 तक के मुनाफ़ा कमाने वाली दवा कम्पनियो ने आग में घी का काम किया है दवा कम्पनियो के लालच का एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है कि एक नई दवा कम्पनी ने कुछ साल पूर्व अपना एक महंगा टानिक सायरप प्रोडक्ट लांच किया। उसके फार्मूले मे बेतुका अनावश्यक संयोजन था और खतरनाक बात यह थी कि उसमे अनावश्यक रुप से स्टेराईड मिलाया गया था उसकी एक हजार शीशिया लिखने वाले डाक्टर को एक मंहगा तोहफा दिया जाना था ।आजकल कारपोरेट के जमाने में तो यह गिफ्ट विदेश यात्रा पैकेज टूर तक विस्तार पा गया है उस दवा कम्पनी के प्रतिनिधि ने एक बाल रोगविशेषज्ञ को इस मंहगे तोहफे का आफर दिया था और उस डाक्टर.ने अगले पन्द्रह दिन मे आने वाले अपने हर बाल रोगी को चाहे उसे किसी भी तरह की बिमारी हो उसे अनिवार्य रूप से यह टानिक लिखा और अपना लक्ष्य प्राप्त किया अब उससे किस बच्चे को क्या कितने साईड इफेक्ट हुए, इस सबसे उन्हे कोई लेनादेना नही , उन्हे तो उनका तोहफा मिल गया बस। हो सकता है वे बच्चे उन " स्टेराईड साईड इफेक्टो" को जीवन भर भोगे, जिसके तहत, उनका शारीरिक मानसिक विकास अवरूद्ध भी हो सकता है , शरीर बेहद मोटा हो सकता है, लड़कियो को मूछें निकल सकती है या बच्चे को जीवन भर की विकलांगता भी हो सकती है

पिछले दिनो जयपुर. शहर के प्रमुख डॉक्टरों के यहां आयकर विभाग की टीम ने छापे मारे आयकर विभाग के अधिकृत सूत्रों के अनुसार डॉक्टरों पर हुई कार्रवाई में अघोषित रूप से डॉक्टरों के प्रॉपर्टी में भारी निवेश का पता चला है। डॉक्टरो ने जयपुर के अलावा दिल्ली और वहां आसपास के इलाकों में प्रॉपर्टी की खरीद की है। प्रॉपर्टी की खरीद के मामले की आयकर विभाग की टीम जांच कर रही है। गौरतलब है कि आयकर विभाग ने बुधवार 8/6/2011 को एक साथ नौ डॉक्टर्स पर कार्रवाई की थी। गुरुवार तक आठ डॉक्टरों ने 16 करोड़ 75 लाख रुपए की अघोषित आय सरेंडर की थी, लेकिन एक हड्डी रोग विशेषज्ञ ने दूसरे दिन शुक्रवार 9/62011 को 2 करोड़ 20 लाख रुपए की अघोषित आय सरेंडर की डॉक्टरों को संसाधन और दवाइयां सप्लाई करने वाली कंपनी के यहां भी इनकम टैक्स के अफसर पहुंचे तो उनकी लेखा पुस्तकों में डॉक्टरों को विदेश ट्रिप कराने के साथ ही अन्य यात्राओं के बिल भी मिले। इस संबंध में कंपनी के अधिकारियों ने बताया कि डॉक्टर मोटा कमीशन लेने के अलावा विदेश ट्रिप के लिए हमेशा दबाव बनाकर रखते हैं। विदेश ये डॉक्टर जाते हैं और खर्चा कंपनी को भुगतना पड़ता है। विदेश यात्राओं का खर्चा उठाना हमारी मजबूरी है। अंततः असर यह मरीज से ही कीमतो को बढ़ा करके वसूल किया जाता है और मरीज को मिलने वाले संसाधनों, दवाओ की कीमते बढ़ा दी जाती है। इस प्रकार जाने कितने उदाहरण लालच की वजह से हर दिन घटित हो रहे है परन्तु उसे रोकने की हमारे पास कोई व्यवस्था या उपाय ही नही है और इस प्रकार से यह सब चिकित्सा क्षेत्र मे लोभ की वजह से फैली हुई आज महाबुराईया आम हो गई है

सबसे अधिक हलाहल लूट मचाई है अस्पताल नर्सिंग होम के मालिको के साथ मिलकर सर्जनो ने पहले पहले इसकी शुरूआत हुई थी डिलेवरी केसो से उसमे मरीज की थोडी सी भी सम्पन्नता दिखाई दे जाने पर सर्जरी के लिए दबाव बनाया जाने लगता है , मरीज भर्ती हुई कि दर्द निवारक दवाये सलाईन के साथ देना शुरू कर देते है फिर एकदम से डराया जाता है कि दर्द नही उठ रहा है जच्चे बच्चे की जान को खतरा हो सकता है, जहर फैल सकता है, तुरन्त आपरेशन करना होगा, परिजन घबराकर तुरन्त सर्जरी की सहमति दे देता है इस प्रकार से , अनावश्यक रूप से मरीज के साथ उसकी जेब की भी सर्जरी हो जाती है आप खुद आंकड़े उठाकर देख ले कि आज कितने प्रतिशत डिलेवरी बिना सर्जरी के होती है तो आपको पता चल जायेगा कि सच्चाई कितनी लोभ मे ड़ूबी हुई और भयानक है परन्तु यह बात केवल कुछ हजार रुपयो तक की ही थी और है

इसके बाद हल्ला आया हार्ट सर्जरी का और अब किड़नी ट्रांसप्लांट सर्जरी, लीवर ट्रांसप्लांट सर्जरी का आज पैसा बनाने मे सबसे उपर ये नाम है उनमे ये सर्जरी ही मुख्य है हार्ट की सर्जरी का विस्तार दस लाख तक और किड़नी ट्रांसप्लांट सर्जरी लीवर ट्रांसप्लांट सर्जरी का विस्तार पचास लाख तक हो गया है और जिन्होने यह दुकाने खोल रखी है उन्हे ग्राहक तो चाहिए और ग्राहक को खोजने फंसाने के लिए नये नये हथकंड़ो का इस्तेमाल होता है उसके लिए भरपूर कमीशन भी बांटे जाते है भ्रष्टाचार अनियमितता यहां तक होती है कि सर्जरी के कुछ हजार रूपयो के आधारभूत खर्च को लाखो रूपयो तक खींच ड़ाला जाता है और इसके लिए नये नये फंडे अपनाये जाते है उदा. के लिए विकासशील नगरो में वहां के स्थानीय डाक्टरो को अपना गुप्त एजेन्ट नियुक्त कर देते है, जो सर्जरी की वास्तविक आवश्यकता वाले मरीजो के अलावा ऐसे मरीजो को भी ड़राकर रेफर कर देते है जिन्हे सर्जरी की वास्तविक आवश्यकता ही नही होती है हां परन्तु वे सर्जरी का खर्च उठा सकते है, और यहां वही सक्षमता उनका अपराध भी साबित होती है ! महानगरो के डाक्टर विकासशील नगरो में वहां के स्थानीय डाक्टरो के सहयोग से मुफ्त जांच शिविरो का आयोजन करते है जिसमे उनके पास दो थर्मामीटर होते है एक वे मरीज के शरीर पर लगाते है दूसरा मरीज की जेब पर लगाते है जेब का तापमान देखकर वे उनमे से कुछ मरीजो को छांट कर अगली जांच के लिए अपने महानगर के बड़े भारी चमचमाते अस्पताल मे बुलाते है जितने लोग वहां पहुंचते है उन्हे फिर से दूसरा थर्मामीटर लगाया जाता है जिनकी जेब वास्तव में अधिक गर्म होती है उन पर सर्जरी का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाता है और फिर उनका शिकार किया जाता है अर्थात सर्जरी की जाती है

यह बात समझ मे नही आती कि किसी एक सर्जरी के लिए एक सर्जन लाखो रूपये किस बात के लेता है, क्या अपने ज्ञान और कौशल के लेता है ? नही ये लाखो रूपये पीड़ित की मजबूरी के लिए जाते है | यह नैतिक रूप से सरासर अनुचित ही नही अपराध भी है कोई अन्य व्यक्ति जो अपने तकनीकि ज्ञान से कोई अन्य कार्य करता है वह भी अपने कार्य का डाक्टर सर्जन ही तो होता है परन्तु वह कुछ सौ या हजार रूपयो मे अपना कर्तव्य निभा देता है जबकि सर्जन लाखो रूपये लेता है यह कहॉ का न्याय है और इस परिस्थिती मे गरीब और मध्यम वर्ग क्या करेगा इस बाबत किसी ने कुछ सोचने का कभी प्रयास भी नही किया है डॉक्टर जिसका इलाज कर सकते है ,अस्पतालो मे जिन्हे ठीक किया जा सकता है ,ऐसे कई मरीज अस्पतालो के गेट पर पैसा होने से दम तोड़ देते है।

मरूस्थल में अगर किसी के पास पानी हो और वह प्यास से तड़फते व्यक्ति से एक गिलास पानी के बदले उसके पास से एक करोड़ रूपया मांग ले या जितना धन हो वह सब मांग ले तो वह उसे देना ही होगा और मजबूरी में वह देगा भी क्योकि वह रूपया पानी की कीमत नही जान की कीमत है प्रकारांतर से यह उस डाकू के समान ही है जो जान बख्शने के बदले सारा धन ले लेता है और उसको वह देना ही पड़ता है वह भी जान की ही कीमत है इसी प्रकार से डॉक्टर भी वही करता है फर्क यह है कि वह जान बचाने के लिए ढ़ेर सारे पैसे मांगता है। डाकू.- अब तेरी जान ले लूंगा / डॉक्टर - अब तेरी जान बचाउंगा नही दोनो में दांव पर तो जान ही लगी है परन्तु डाकू जितना व्यक्ति के पास मे है उतना लेकर बख्श देता है ज्यादा वाले से ज्यादा ले लेता है कम वाले से कम ले लेता है लेकिन डॉक्टर किसी को भी बख्शता नही है ,उसे तो निश्चित रूपया ,चाहिए याने चाहिए, नही है तो कर्ज लो ,घर बेचो ,खेती बेचो या अपने आपको बेचो कही से भी लेकर के आओ और मुझे दो इस तरह से तो डाकू ज्यादा मानवीय मालूम पड़ता है परन्तु डाकू के पास आदमी खुद होकर नही जाता जबकि मजबूरी है कि डॉक्टर के पास आदमी को खुद होकर जाना पङता है

अस्पतालो में जगह खाली हो तो पुराने मरीजो को छुट्टी नही दी जाती आई. सी. यू और वेन्टीलेटरो पर मृत मरीज को भी चढ़ाये रहते है नयी नयी अनावश्यक मंहगी जांचे बार-बार कराई जाती है अनावश्यक मंहगी दवाये लिखी जाती है , अनावश्यक सर्जरी बेहद जरुरी बता कर दी जाती है और भी जाने क्या क्या किया जाता है यह पता ही नहीं चलता क्योकि सारे अस्पताल बेहद अनावश्यक गोपनीयता बरतते है ,अपने मरीज की फाईल किसी को नही देते , देते है तो केवल डिस्चार्ज कार्ड और भारी भरकम बिल। यह बेहद अनावश्यक गोपनीयता की गलत परम्परा अस्पतालो की अपनी सुरक्षा,बचत ,अपनी गल्ती, भूल, लापरवाही, अपनी लूटमार, ड़कैती आदि को छुपाने के लिए अस्पतालो ने अपना रखी है इससे पारदर्शिता का पूर्णतया लोप हो जाता है और वे मनचाही लूट मचाने के लिये भी बिल्कुल स्वतंत्र रहते है इस अनावश्यक गोपनीयता को भी आपराधिक कृत्य घोषित किया जाना चाहिए

कृपया शेष भाग--- 2 मे देखे

1 टिप्पणी:

  1. गंदे धंधो की सभी गंदी बुराईया अपने गंदे रूप मे स्वास्थ्य-चिकित्सा के क्षेत्र मे भी घुसपैठ कर चुकी है

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