सोमवार, 13 सितंबर 2010

Nai Dunia

Published in 05 Aug-2010

विदेशी पूँजी का महँगाई पर कहर
महँगाई का एक मुख्य और महत्वपूर्ण कारक विदेशी पूँजी है, जो पिछले दरवाजे से प्रवेश कर रही है। आज जिन शर्तों पर और जिन क्षेत्रों में विदेशी पूँजी भारत आ रही है, वे न तो हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुकूल हैं और न ही हमारी आवश्यकताओं और लक्ष्यों को हासिल करने में सहयोगी हैं। डॉलर के मुकाबले रुपए की मजबूती ने निर्यातकों पर दबाव बढ़ा दिया है।
हम उस दौर से गुजर रहे हैं जब ८.५ प्रतिशत आर्थिक विकास के दावे की चमक को महँगाई निस्तेज कर रही है। महँगाई पर हो रही बहसों में जो भी उपचार सुझाए गए, उनमें अधिकांश लक्षणों के आधार पर हैं, मूल कारणों के आधार पर नहीं । कभी घरेलू माँग का दबाव, कभी आपूर्ति की कमी, कभी ढीली मौद्रिक नीति तो कभी वैश्विक बाजारों की ऊँची कीमतों पर घरेलू महँगाई का दोष मढ़ा जाता रहा। जनसाधारण को न तो सरकार का दिसंबर के बाद महँगाई कम होने का आश्वासन आश्वस्त कर पाता है और न ही रिजर्व बैंक का आगामी कुछ महीनों में मुद्रास्फीति की दर ६ प्रतिशत रहने का आकलन भरोसा दिलाता है।
इन आश्वासनों और कारणों की खोज में यह भुला दिया गया कि महँगाई का एक मुख्य और महत्वपूर्ण कारक विदेशी पूँजी है, जो पिछले दरवाजे से प्रवेश कर रही है। यह प्रवेश अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजी जा रही धनराशि, संस्थागत विदेशी निवेशक, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, व्यावसायिक विदेशी ऋण तथा सरकारी और अंतरराष्ट्रीय विदेशी संस्थाओं द्वारा दिए जा रहे ऋण के रूप में होता है। मार्च २००८ को समाप्त हुए १२ महीनों में १०७ अरब डॉलर की विदेशी पूँजी भारत में आई। उस समय रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के सामने मुख्य कठिनाई यह पेश हुई कि मुद्रा आपूर्ति कम करने के लिए वह तरलता वृद्धि कैसे निष्क्रिय करे। उसने डॉलर खरीदे, रुपए बेचे ताकि मुद्रा की आपूर्ति बढ़ने के कारण महँगाई न बढ़े। विदेशी पूँजी का प्रवाह जारी रखने और मार्च २०१० को समाप्त हुए वर्ष तक ५४ अरब डॉलर की विदेशी पूँजी भारत में आई । दिलचस्प बात यह है कि उस समय सरकार के थोक मूल्य सूचकांक के आँकड़े मुद्रास्फीति में गिरावट के संकेत देते रहे लेकिन दूसरी ओर बाजार की मूल्य स्थिरता लुप्त होती गई । २००८ और २००९ में विदेशी पूँजी के कारण जो महँगाई बढ़ी, उसका जिद्दी स्वभाग २०१० में भी कायम रहा। ज्ञातव्य है कि २००९ में विदेशी संस्थागत निवेश और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के माध्यम से पच्चीस-पच्चीस अरब डॉलर की धनराशि ने भारत में प्रवेश किया ।
ऐसा भी नहीं कि विदेशी पूँजी द्वारा बाजार में किए जा रहे उत्पात से भारत सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक पूर्णतः बेखबर थे। रिजर्व बैंक की विशेष चिंता इस बात को लेकर थी कि संस्थागत निवेशकों द्वारा सहभागिता और उपखातों के माध्यम से भारत में पूँजी आगम के रास्ते को कैसे बंद किया जाए। विदेशी पूँजी ने जहाँ एक ओर परिसंपत्ति मूल्य में असाधारण वृद्धि दर्ज की, वहीं दूसरी ओर वित्तीय अस्थिरता भी पैदा की। सरकार और रिजर्व बैंक दोनों ही बार-बार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि उतनी ही विदेशी पूँजी के भारत में प्रवेश करने की स्वीकृति दी जानी चाहिए, जिसका अवशोषण भारतीय अर्थव्यवस्था में हो सके। लेकिन यह केवल चिंता और कहासुनी की बात थी । नतीजा यह हुआ कि नए रास्तों से विदेशी पूँजी भारत में आती रही जिसका अवशोषण भारतीय अर्थव्यवस्था नहीं कर सकी। पिछले दिनों रिजर्व बैंक के मौद्रिक नीतिगत सोच और सरकार के कार्य-व्यवहार में भारी विरोधाभास देखने में आया। एक तरफ तो सरकार अंतरराष्ट्रीय दबाव में बाजारवाद को बढ़ावा देने के सारे प्रयास में जुटी रही है, जबकि दूसरी तरफ मुद्रा का प्रसार कम करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। यह सही है कि चालू खातों के घाटे को कम करने और घरेलू माँग को वित्तीय सहारा देने के लिए विदेशी पूँजी की आवश्यकता होती है, लेकिन हुआ यह कि अस्थिर और अस्पष्ट वित्तीय और मौद्रिक नीतियों के कारण केवल मुद्रास्फीति पर ही दबाव नहीं बढ़ा, बल्कि चालू खाते का घाटा भी ३८.४ अरब डॉलर हो गया ।
विदेशी व्यावसायिक कर्ज की विदेशी पूँजी पर ऊँची ब्याज की दरों ने भी महँगाई बढ़ाई जिसका नतीजा यह हुआ कि औद्योगिक उत्पादन की लागत बढ़ती गई और पिछले तीन वर्षों में मुद्रास्फीति में औद्योगिक या विनिर्माण क्षेत्र का योगदान बढ़कर ७.९ प्रतिशत हो गया। मार्च २०१० के अंत में विदेशी व्यावसायिक ऋण ७१ अरब डॉलर का था जिसकी ऋण सेवा करीब १७ अरब डॉलर थी । पिछले दिनों जारी हुई विश्व खाद्य संगठन की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि वायदा कारोबार में विदेशी पूँजी के प्रवेश के कारण पिछले दो वर्षों के दौरान दुनियाभर के खाद्य पदार्थों के दामों में जो भारी इजाफा हुआ है, उसमें अधिकांशः भूमिका सट्टेबाजी और वायदा बाजार की सट्टेबाजी की है। इतना ही नहीं, व्यावसायिक सेवाओं के नाम पर भारत से विदेशों को गत वर्ष २३ अरब डॉलर का भुगतान हुआ । उल्लेखनीय है कि २००९ में आई विदेशी पूँजी की राशि गत वर्ष से बढ़कर दोगुना हो गई , लेकिन यह पता नहीं कि इतनी विशाल राशि को कौन भेज रहा है और कौन प्राप्त कर रहा है। यह भी समझ से परे है कि वास्तुशिल्प या सलाहकार या विशेषज्ञ २३ अरब डॉलर की सेवाएँ विदेशों में देंगे। यह भी ज्ञात नहीं हो सका है कि इन व्यावसायिक सेवाओं का संचालन कौन कर रहा है और इसका कौन मालिक है। अमेरिका के पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर देवेश कपूर का तर्क है कि वास्तव में रिजर्व बैंक के पास आने वाली और जाने वाली पूँजी का कोई सूत्र नहीं है। भारतीय रिजर्व बैंक के अधिकारी स्वयं स्वीकार करते हैं कि अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ-साथ अरबों डॉलर के आवागमन का आकलन नही हो पा रहा है। इसलिए चिंता का विषय यह भी है कि संभवतः २३ अरब डॉलर (अर्थात ७०० अरब रुपए) का उपयोग नशीले पदार्थों के व्यवसाय से प्राप्त काले धन को श्वेत मुद्रा में बदलने में हो रहा है। यह भी भय बना हुआ है कि इस राशि का एक भाग आतंकवादियों के वित्तीय पोषण के भी काम आ रहा हो । इसके बावजूद यह खोज का विषय है कि ७०० अरब रुपए की राशि बाजार में किन-किन क्षेत्रों में लगी हुई है। २३ अरब डॉलर का यह "ब्लैक बॉ

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